समाजवादी पार्टी के नेता सन्तोष प्रताप सिंह सहतवार बलिया में बताया बाबू बीर कुवर सिंह जी हमारे पूर्वज है
समाजवादी पार्टी के नेता सन्तोष प्रताप सिंह बाग़ी बलिया ने दिया श्रद्धांजलि कहा बाबू बीर कुवर सिंह जी के बलिदान से ही देश भर में आजादी की अलख जगी थी, बाबू बीर कुवर सिंह जी हमारे पूर्वज है
बाबू वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि पर:
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भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों में जिस व्यक्ति का नाम सर्वाधिक श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है, वह बाबू वीर कुंवर सिंह का है। आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले इतिहास के शूरवीरों के बीच अक्सरहां उनकी तुलना चितौड़गढ़, राजस्थान के राणा, प्रताप सिंह, से की जाती है। दोनों ने आजादी को अपने प्राणों से बढ़कर माना। एक ने किसी भी सत्ता के सामने झुकने के बजाय घास की रोटी खाकर जीवन गुजारना बेहतर समझा तो दूसरे ने अपनी अस्सी साल की उम्र की बिना परवाह किये स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में अपने आप को झोंक दिया और बहादुरी, बलिदान, नेतृत्व एवं रणकौशल की नयी मिसालें कायम किया।
यह याद रखना जरूरी है कि कुंवर सिंह की नेतृत्वकारी ताकत का राज व्यक्तिगत जीवन में उनकी सदाशयता, दरियादिली, नेकनीयती और सभी जातियों और धर्मों के प्रति उनके सदभाव में छिपा था। यह अकारण नहीं था कि 1857 की क्रांति के दौरान जब डुमरांव राज से लेकर सिंधिया महाराज तक अंग्रेजों के तलवे चाट रहे थे, तब दलितों और मुसलमानों के हुजूम ने आखिरी दम तक जंगे मैदान में कुंवर सिंह की विद्रोही सेना का साथ दिया था।
लेफ्टिनेंट जनरल एसके सिन्हा अपनी किताब 'वीर कुंवर सिंह- दी ग्रेट वारियर ऑफ 1857' में लिखते हैं: "वीर कुंवर सिंह जगदीशपुर रियासत के ऐसे रियासतदार थे जिनकी आर्थिक ताकत कमज़ोर थी, लेकिन सामाजिक ताकत इतनी गहरी और व्यापक थी कि दानापुर विद्रोह के बाद इंग्लैंड में कंपनी सरकार की चूलें हिल गयी थीं। तब दानापुर छावनी में जो दलित जाति के सैनिक थे, उसमें से एक भी सैनिक कंपनी सरकार का वफादार नहीं रहा था। दानापुर से लेकर मसौढ़ी तक सैनिक और गरीब- खेतिहर मजदूर के 'बाबू साहेब' कमांडर थे।"
इतिहास के इस अप्रतिम महानायक ने अस्सी साल की उम्र में त्याग और कुर्वानी की जो अमर गाथा लिखी, उसे भारतीय जनमानस न पहले कभी भूला, न आज भूला है। अपनी मृत्यु के 165 वर्ष बाद भी कुंवर सिंह पूर्वांचल के लोकगीतों में जिंदा हैं। ‛बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर’ के बिना होली के दिन बंङला में अबीर नहीं उड़ता। वे हमारे महानायक हैं, और रहेंगे।
इसके साथ ही हमें उन गद्दारों को भी नहीं भूलना है जो ताज़िन्दगी अंग्रजों की दलाली में रत रहे और आज़ादी के सेनानियों के खिलाफ किये जाने वाले षड्यंत्रों में अंग्रेजों का साथ देते रहे।
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