आधुनिक भारत में लोकतंत्र के संस्थापक एवं पथ प्रदर्शक थे नेहरू ‐- संतोष प्रताप सिंह लोक सभा बलिया के भावी उम्मीदवार ने किया समर्थन
27 मई 1964 - पुण्य स्मृति
आधुनिक भारत में लोकतंत्र के संस्थापक एवं पथ प्रदर्शक थे नेहरू ‐-
मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण की भाषा में जवाहरलाल नेहरू पूर्णतः अपने पिता के पुत्र थे, जबकि- गांधी जी अपनी माता की संतान थे। जवाहर लाल नेहरू ने अपने पिता मोतीलाल नेहरू से स्वतंत्रता, साहस की भावना, जोखिम उठाने की क्षमता, दृढ़ इच्छाशक्ति, अविचल संकल्प और अभिजात्य संस्कार विरासत में पाया था। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने गए जवाहरलाल नेहरू ने लगभग सात वर्ष इंग्लैड में व्यतीत किया। इस दौरान वह ब्रिटेन में प्रचलित मानववादी उदारवाद की परम्पराओं की तरफ आकर्षित हुए और इन परम्पराओं को हृदयंगम कर लिया। लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सुविख्यात शिक्षक और सुप्रसिद्ध राजनीतिक विचारक हेराल्ड लाॅस्की के प्रिय शिष्यों में रहे जवाहरलाल नेहरू जार्ज बर्नार्ड शॉ और बर्ट्रेण्ड रसल के विचारों से बहुत प्रभावित थे। विश्व, ब्रहमांड और समाज को समझने- परखने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने वाले जवाहरलाल नेहरू जैसे-जैसे भारतीय स्वाधीनता संग्राम में मुखर होते गए वैसे- वैसे उनकी स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद में आस्था बढती गई। इसीलिए स्वाधीनता उपरांत प्रधानमन्त्री बनने और एक राष्ट्रीय नेता के रूप में उन्हे कार्य करने का अवसर मिला तो उन्होंने सम्पूर्ण भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक स्वरूप में ढालने का ईमानदारी से प्रयास किया। भारत के लगभग साथ-साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्री लंका और चीन जैसे पडोसी देशों के राजनीतिक चरित्र और अब तक हूई राजनीतिक हलचलों का गहराई से तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता हैं कि- लगभग सभी पडोसी देशो में लोकतंत्र छूई-मूई की स्थिति में है और रह-रह कर हिचकोले लेता रहता हैं । जबकि-धार्मिक, भाषाई, प्रजातीय, भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता होते हुए भारत में स्वाधीनता उपरांत से अबतक लोकतांत्रिक व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही हैं और उत्तरोत्तर इसकी जडे गहरी होती जा रही हैं। निर्विवाद रूप से इसका कारण जवाहरलाल नेहरू की लोकतांत्रिक मूल्यों और मान्यताओं के प्रति गहरी आस्था और इसको स्थापित करने में उनके दूरदर्शिता पूर्ण प्रयास है।
श्रीमती एनी बेसेंट और बाल गंगाधर तिलक के होलरूल आन्दोलन से राजनीतिक जीवन आरंभ करने वाले जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी द्वारा चलाए जा रहे हैं असहयोग आंदोलन में भाग लिया और कारागार में सजा काटी। बीसवी सदी के तीसरे दशक में उन्होंने पूर्ण स्वराज के आदर्श का सर्मथन कर अपनी राजनीतिक प्रखरता सिद्ध की,"जिससे कांग्रेस और स्वाधीनता आन्दोलन में नेहरू की भूमिका उत्तरोत्तर बढती गई। उस समय तक कांग्रेस के अधिकांश शीर्षस्थ नेता और 1928 में सम्पन्न सर्वदलीय सम्मेलन ने औपनिवेशिक स्वराज्य के आदर्श को स्वीकार कर लिया था। परन्तु जवाहरलाल नेहरू ने सुभाषचंद्र बोस और श्रीनिवास आयंगर के साथ मिलकर औपनिवेशिक स्वराज्य का विरोध किया और उनके स्थान पर पूर्ण स्वराज्य को अखिल भारतीय कांग्रेस का लक्ष्य निर्धारित किया। हालांकि- इसके पूर्व अहमदाबाद कांग्रेस में हसरत मुहानी ने "ब्रिटिश साम्राज्य के बाहर पूर्ण स्वराज्य " का प्रस्ताव रखा था, किन्तु वह अस्वीकृत हो गया था। 1924 मे बेलगाँव कांग्रेस अधिवेशन में भी पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस का उद्देश्य निर्धारित करने का प्रस्ताव रखा गया था परन्तु इस अधिवेशन की अध्यक्षता कर रहे महात्मा गांधी ने इसे प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी। महात्मा गांधी के आशीर्वाद से मोतीलाल नेहरू के बाद 1929 मे जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्ष चुने गए और उनकी अध्यक्षता में 31 दिसंबर 1929 की आधी रात को पूर्ण स्वराज्य का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया गया। सम्पूर्ण स्वाधीनता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस की जवाहरलाल नेहरू ने 1936, 1937 और 1946 में अध्यक्षता की। 1929 में जिस साहस, वीरता, प्रखरता और दूरदर्शिता के साथ नेहरू ने पूर्ण स्वराज पारित कराया उससे नेहरू की नेतृत्व करने की शक्ति का परिचय मिलता है। 1942 के ऐतिहासिक आंदोलन "अंग्रेजो भारत छोड़ो " में जवाहरलाल नेहरू ने बढ चढकर हिस्सा लिया और लगभग तीन साल जेल में गुजर-बसर किया। जेल से मुक्त होने के उपरांत भारत की राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा होने वाली लगभग सभी वार्ताओं में कांग्रेस के महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। 1946 मे बनने वाली अंतरिम सरकार का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू किया तथा 15 अगस्त 1947 से लेकर 27 मई 1964 तक भारत के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। स्वाधीनता उपरांत लगभग सत्रह वर्ष तक देश का कुशलता पूर्वक नेतृत्व करते हुए आधुनिक भारत के निर्माण के लिए अत्यंत दूरगामी और दूरदर्शितापूर्ण नीतियों को मूर्त रूप दिया।
बुद्धिवादी, यथार्थवादी और वैज्ञानिक चेतना से लबरेज़ जवाहरलाल नेहरू कभी अपनी माता स्वरूप रानी की धार्मिक निष्ठा और विचारधारा को आत्मसात नहीं कर सके। महात्मा गांधी जैसे विशुद्ध धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्तित्व के निकट सम्पर्क में रहने के बाद भी जवाहरलाल नेहरू आध्यात्मिकता की तरफ आकर्षित नहीं हो पाएं। हालांकि वह उग्र और कट्टर नास्तिक तथा भौतिकवादी नहीं थे। वह परम्परागत भारतीय रहस्यवाद से उलझे बगैर यथार्थवादी दृष्टि सामाजिक और राजनीतिक जीवन जीते रहे। मूलतः वनस्पति विज्ञान के विद्यार्थी रहे जवाहरलाल नेहरू भारत और विश्व के इतिहास की गहरी समझदारी रखते थे। नेहरू ने अपनी पुस्तक ' विश्व इतिहास की झलक ' में इतिहास के समाजशास्त्र की पुनः रचना करने का अद्वितीय प्रयास किया है। इस पुस्तक का गहराई और गम्भीरता से अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि- यह पुस्तक महज घटनाओं और तथ्यों का विवरण मात्र नहीं है। बल्कि इस पुस्तक में जवाहरलाल नेहरू ने मार्क्सवादियों की तरह उन परिस्थितियों का बुद्धिमत्ता से विश्लेषण किया है जिसमें सामाजिक तथा राजनीतिक घटनाएं घटती है। इस प्रकार नेहरू इतिहास के संबंध में प्रचलित इस सिद्धांत को नहीं मानते थे कि- 'इतिहास सार्वभौम ऐतिहासिक व्यक्तित्वो की आत्मकथा हैं'। बल्कि ऐतिहासिक विकासक्रम में वस्तुगत शक्तियों को प्राथमिकता देते हैं। वह विशुद्ध भौतिकवादी अर्थो में वस्तुवादी भी नहीं थे। इसलिए इसलिए इतिहास निर्माण में वह महानायको और महापुरुषों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करते थे। आधुनिक भारतीय राजनीति के संदर्भ में उन्होंने महात्मा गांधी की सृजनात्मक भूमिका को स्वीकार किया है। उन्होंने स्वीकार किया कि- महात्मा गांधी के करिश्माई व्यक्तित्व के कारण महत्वपूर्ण सामाजिक और राजनीतिक बदलाव हुए जो एक क्रांति के सदृश थे। महात्मा गांधी के कारण ही भारत का स्वाधीनता आन्दोलन एक सुसंगठित, अनुशासित और व्यापक जन आन्दोलन के रूप में बदल गया।
जवाहर लाल नेहरू भारत माता के सच्चे सपूत और एक महान राष्ट्रवादी थे। अनगिनत विविधताओं के बावजूद वह भारतीय इतिहास और भारतीय संस्कृतियों में मौलिक एकता का दिग्दर्शन करते थी । उनके राष्ट्रवाद सम्बन्धी विचार फ्रांसीसी विचारक अर्नेस्ट रेनन से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं। उन्होंने कहा है कि- " राष्ट्रवाद तत्वतः अतीत की उपलब्धियों, परम्पराओ और साझा अनुभूतियों की स्मृति हैं , और राष्ट्रवाद जितना शक्तिशाली आज है उतना कभी भी नहीं रहा। जब कभी संकट गहराया तभी राष्ट्रवादी भावना का उत्थान हुआ और लोगों ने अपनी परम्पराओं से शक्ति तथा सांत्वना प्राप्त करने का प्रयास किया।
नेहरू अध्यक्षात्मक लोकतंत्र के बजाय संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांत में आस्था और विश्वास करते थे। शासन के कठोर सत्तावादी और हिंसात्मक चरित्र से स्वभावतः घृणा करते थे। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लम्बे, कष्टदायक और कठिन दौर की अनुभूतियों ने नेहरू के हृदय मे नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति गम्भीर प्रेम और अनुराग को दृढता प्रदान कर दिया। इसलिए संविधान निर्माण के महाप्रज्ञ में विभिन्न समितियों का सदस्य रहते हुए नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता को विधिसम्मत बनाने का सराहनीय प्रयास किया। संविधान सभा में स्वतंत्रता, समानता और अधिकारों की प्रखरता से वकालत करते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को लोकतांत्रिक परिवेश प्रदान किया। नेहरू कार्ल मार्क्स और सोवियत संघ की सुनियोजित अर्थव्यवस्था से काफी हद तक प्रभावित थे। इसलिए नेहरू राजनीतिक चिंतन में समाजवाद की झलक मिलती हैं। परन्तु महात्मा गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारी होंने के साध्य के साथ-साथ साधन की पवित्रता में भी विश्वास करते थे। परिणाम स्वरूप नेहरू ने समाजवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने के केन्द्रीकृत सत्तावादी व्यवस्था के स्थान पर संसदीय लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। जवाहर लाल नेहरू वैश्विक स्तर पर व्यापक रूप से व्याप्त प्रजातीय अहंकार और साम्राज्यवाद के प्रखर विरोधी और आलोचक थे। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की बेहतर समझदारी रखने वाले नेहरू ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रत्येक राष्ट्र की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता के सम्मान की वकालत किया। इस दिशा में पंचशील का सिद्धांत जवाहरलाल नेहरू की वैश्विक राजनीति को अद्वितीय और अनूठी देन और उपलब्धि है। अंततः उत्कट राष्ट्रवादी , देशभक्त और वैश्विक स्तर पर भारत की पहचान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले पंडित जवाहरलाल नेहरू को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धा सुमन अर्पित है।
मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता
लेखक/ साहित्यकार /उप सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका ।
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