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भारतीय समाज, लोकजीवन, राजनीति, साहित्य और कला को दिया दिखाने वाला ग्रंथ है रामचरितमानस-

 भारतीय समाज, लोकजीवन, राजनीति, साहित्य और कला को दिया दिखाने वाला ग्रंथ है रामचरितमानस-


  संस्कृत भाषा भारतीय वांगमय के आदि कवि बाल्मीकि कृति रामायण, कम्बन रामायण, तेलुगू रामायण  और लगभग समस्त भारतीय भाषाओं में सृजित  रामायण सहित मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के सुप्रसिद्ध रचनाकार महाकवि तुलसीदास द्वारा  रचित अजर-अमर  रामचरितमानस हमारी सभ्यता, संस्कृति और समृद्ध साहित्यिक परंपरा की अनमोल धरोहर हैं। भारतीय ज्ञान विज्ञान, साहित्य और दर्शन की महान परंपरा में रामायण, महाभारत, उपनिषद, भगवद्गीता और त्रिपिटक सहित विविध महांग्रथो और महाकाव्यों के अध्ययन, चिंतन, मनन और श्रवण से हर भारतीय जनमानस अनुप्राणित, अनुप्रेरित , उर्जस्वित,  अनुशासित और संस्कारित होता हैं । वस्तुतः  मर्यादा पुरुषोत्तम राम के महान व्यक्तित्व, कृतित्व और चरित्र में गहराई और गहनता से डूबने, उतरने और गोते लगाने वाले भारतीय वसुंधरा  के विद्वान मनीषियों और साहित्यकारों के निर्मल मन की साधना और तपस्या के फलस्वरूप रामचरित मानस जैसे- हमारे अगनिनत बहुभाषायी  महाग्रंथो तथा महाकाव्यों प्रणयन हुआ है। इसलिए अलग-अलग कालखण्डो में विविध भाषाओं में रचित रामायण सहित तुलसीदास कृत रामचरितमानस  में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के आदर्श व्यक्तित्व, कृतित्व और चरित्र का दिग्दर्शन होता हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम को केन्द्रित कर लिखे गये समस्त महाग्रंथ और महाकाव्य भारतीय जनमानस के मानस में गहरे रूप से रच-बस गए और इन महाग्रंथो और महाकाव्यों का महात्म्य हैं कि- युगों-युगों के महानायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम आज हमारे रीतिरिवाजों ,परम्पराओ ,संस्कारो लोकाचरो और लोक जीवन के लगभग प्रत्येक उपक्रम में समाहित है।

तुलसीदास कृत रामचरितमानस की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता उसका लोक भाषा अवधी में रचित होना है। लोकभाषा में रचित होने के कारण तुलसीदास कृत रामचरितमानस भारतीय जनमानस का ग्रंथ बन गया। एक आदर्श व्यक्ति, एक आदर्श परिवार और एक आदर्श समाज के लिए आवश्यक मूल्यों, मान्यताओं और आदर्शों को अपनी आगोश में समेटे रामचरितमानस आज भारतीय समाज, लोकजीवन, संस्कृति, सभ्यता, कला और राजनीति को दिया दिखाने वाला प्रकारांतर से मार्गदर्शन करने वाला ग्रंथ है। इसलिए वर्तमान दौर के राजनेताओं को अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों और मतों के ध्रुवीकरण के लिए रामचरितमानस सहित भारत की समृद्ध साहित्यिक परंपरा के ग्रंथों और महाकाव्यों को विवादित करने से परहेज करना चाहिए। ध्यातव्य है कि- कोई भी रचनाकार अपनी समकालीन सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, मिथकों और पूर्वाग्रहों से पूर्णतः उन्मुक्त नहीं रह पाता है। इसलिए तुलसीदास की रचनाओं पर भी तत्कालीन समाज की सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, मिथकों और पूर्वाग्रहों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। यह भी सत्य है कि- मध्यकालीन भारतीय समाज एक संक्रमणकालीन समाज और आधुनिक भारतीय समाज की तरह आधुनिक, लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक, तार्किक, विवेक पर आधारित तथा संविधान द्वारा संचालित समाज नहीं था। इसलिए तुलसीदास ने तत्कालीन समाज की सामाजिक बुनावट, सामाजिक परिस्थितियों, सांस्कृतिक परिवेश और साहित्यिक सीमाओं में रहकर नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण रामचरितमानस जैसे उत्कृष्टतम और कालजयी साहित्य का सृजन किया। इसलिए वर्तमान दौर के राजनेताओं से विनम्र आग्रह है कि-रामचरितमानस को खंडित विखंडित रूप से पढकर अनावश्यक वितंडावाद खडा करने के बजाय सम्पूर्णता में पढकर आदर्श राजनीतिक मानदंडों को स्थापित करने की आवश्यकता है।  

      समस्त पूर्वाग्रहों से उन्मुक्त होकर ईमानदारी, समग्रता, सम्पूर्णता और व्यापक दृष्टि से रामचरितमानस का अध्ययन करने पर स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता हैं कि- इसका केन्द्रीय विषय-वस्तु राम-रावण युद्ध हैं। जिसका मौलिक निहितार्थ असत्य, अन्याय और अत्याचार पर सत्य, न्याय और सदाचार की विजय के युद्ध का महिमामंडन। इस युद्ध में मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने समस्त प्रकार के दुर्गुणो, दुर्विकारो , दुष्प्रवृत्तियों और दानवता के प्रतीक दशानन को  परास्त कर महान मानवता का मार्ग प्रशस्त किया था। हमारी प्राचीन सामाजिक व्यवस्था की बुनावट के अनुसार लंका नरेश रावण उच्च कुल, वंश, गोत्र में उत्पन्न परमज्ञानी ब्राह्मण था। परन्तु इन समस्त गुणों से परिपूर्ण होने के बावजूद अपनी राक्षसी प्रवृत्तियों के कारण रावण मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा स्वयं के दमन का कारण बनता है। रामचरित मानस की चंद चौपाइयों " ढोल गँवार शुद्र पशु नारी । सकल ताडना के अधिकारी। ।" को लेकर तुलसीदास की संकीर्णता पर प्रश्नचिन्ह खडा करने वाले राजनेताओं को सोचना चाहिए कि- स्वयं ब्राहमण कुल वंश परंपरा में पैदा हुए तुलसीदास ने उच्च ब्राहमण कुल वंश गोत्र में पैदा हुए परन्तु दानवता के प्रतीक रावण के विनाश और विध्वंस का वर्णन उत्कंठ हृदय से किया है। इसलिए स्वस्थ साहित्य के विविध रसों से परिपूर्ण रामचरितमानस को मानवीय मूल्यों को मजबूत करने वाले तथा जन-जन में नैतिक बोध जगाने वाले ग्रंथ के रूप में स्वीकार करना चाहिए। 

    लंका नरेश लंकेश को पराजित करने के उपरांत चौदह वर्षीय वनवासी जीवन की अनुभूतियों की थाती को हृदय में समाहित किये हुए वापस अयोध्या आकर जिन सिद्धांतों और विचारों के आधार पर मर्यादा पुरुषोत्तम ने शासन व्यवस्था स्थापित  किया उसे समृद्ध भारतीय साहित्य और चिंतन परम्परा में " राम-राज्य* "के नाम से जाना समझा जाता हैं । भारतीय साहित्य और राजनीतिक चिंतन परम्परा में वर्णित राम-राज्य को आधुनिक दौर में वर्णित और कुछ देशो में प्रचलित कल्याणकारी राज्य के समतुल्य माना जाता है। वस्तुतः जिस शासन सत्ता की अंतरात्मा में ईमानदारी सच्चाई सचरित्रता जन कल्याण और बचनबद्धता आकंठ अंतर्भूत हो उसे ही रामराज्य कहा जाता हैं। प्रकारांतर से कोई नृप होय हमें क्या हानि की धारणा के विपरीत अंतिम कतार में खड़े इंसान को एहसास हो कि- हमारे उपर शासन करने वाली सरकार हमारी अपनी सरकार हैं। वर्तमान दौर मे लोक कल्याणकारी राज्य राज्यं की अवधारणा अत्यंत लोकप्रिय है। लोक कल्याण कारी राज्य की संकल्पना को मूर्त रूप देने में रामचरितमानस बहुत सहायक हो सकता हैं। 

   


मनोज कुमार सिंह प्रवक्ता

बापू स्मारक इंटर काॅलेज दरगाह मऊ मऊ।

लेखक/ साहित्यकार 

उप सम्पादक कर्मश्री मासिक पत्रिका




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