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राजा महेन्द्र प्रताप सिंह- जीवन और संघर्ष

 आज जिनकी पुण्यतिथि है- (निधन- 29 अप्रैल 1979) 


राजा महेन्द्र प्रताप सिंह- जीवन और संघर्ष 


 दूरद्रष्टा, यायावर विद्रोही, प्रेम भावना तथा विश्वबंधुत्व के विचार के प्रसारक और स्वाभाविक वामपंथी थे राजा महेन्द्र प्रताप सिंह। 


 डा॰ गिरीश 


राजा महेन्द्र प्रताप जैसे महान व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने में समाज और इतिहास दोनों ने चूक की है। इतना ही नहीं उनके धुर दक्षिणपंथी विरोधी भी वोटों की राजनीति के लिए उनका इस्तेमाल समय समय पर करने से चूकते नहीं हैं। आज उनकी पुण्यतिथि पर पसरा सन्नाटा हैरान करने वाला है। जन्मदिवस भी अधिकतर उनके सजातीय लोग और वामपंथी ही मनाते देखे जाते हैं। उन्हें साधुवाद ही दिया जाना चाहिए। 


उनका जन्म 1 दिसंबर 1886 को वर्तमान हाथरस जनपद में स्थित मुरसान रियासत में हुआ था और जिन्हें हाथरस के राजा श्री हरनारायन सिंह ने 3 वर्ष की उम्र में ही गोद रख लिया था। हाथरस के मुख्य किले और उसके राजा दयाराम का पतन अंग्रेजों के हाथों 1857 में ही हो चुका था। संबन्धित छोटी छोटी कई रियासतों के उत्तराधिकारीगण हुकूमत से प्राप्त जमींदारियों से जीवनयापन कर रहे थे। 


विद्रोही स्वभाव के राजा महेंद्र प्रताप को गुलामी जैसी यह व्यवस्था स्वीकार न थी। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जो तब एंग्लो मुहम्मडन कालेज था, से बी॰ ए॰ की शिक्षा ग्रहण करने के वक्त ही वे आज़ादी के आंदोलन से जुडने लगे और 1906 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लेने जा पहुंचे। आजादी के पावन उद्देश्य से उन्होने लेखन किया, पत्रकारिता की और अंततः देशभक्त योध्दा बन कर उभरे। 


इसी बीच उनका विवाह राजस्थान के जींद की राजकुमारी बलबीर कौर से हुआ। मगर विद्रोही, यायावर और 32 साल तक निर्वासित जीवन बिताने के चलते परिवार को बहुत अधिक समय नहीं दे सके। बताया जाता है कि उनकी दो प्रिय पुत्रियों के निधन के समय पर भी वे देहरादून आवास पर मौजूद न थे। 


इसे उनकी दूरदर्शिता ही कहा जायेगा कि सांप्रदायिक- वैमनस्य को वे देश की जनता का सबसे बड़ा शत्रु समझते थे। वे प्रेम और भाईचारे की ताकत को समझते थे, अतएव प्रेमधर्म प्रारंभ किया। उसे मूर्त रूप देने और शिक्षा की महत्ता को ध्यान में रखते हुये उन्होने 1909 में वृन्दावन में प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की। इसके शुभारंभ के अवसर पर स्वयं महामना मदन मोहन मालवीय जी उपस्थित थे। वहीं एक प्रेम पोलिटेकनीक भी खोला गया जो विज्ञान और तकनीकी के प्रति उनके दृष्टिकोण का परिचायक है। 


बसुधैव कुटुम्बकम की भावना से ओतप्रोत उन्होने प्रथम विश्वयुध्द के समय से ही “संसार संघ” की परियोजना पर काम करना शुरू कर दिया था। यह कुछ कुछ सर्वहारा के अंतर्राष्ट्रीयतावाद से प्रेरित था। 


अंग्रेजी हुकूमत ने उनको संपत्तियों से बेदखल कर रखा था। उससे पहले अलीगढ़ और हाथरस की कई शिक्षण संस्थाओं को उन्होने ज़मीनें दान कीं। वर्तमान अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को भी उन्होने 3 एकड़ जमीन दी। 1911 में आर्यसमाज सभा को 80 एकड़ जमीन दान दी। आज वोट के लिए कट्टरपंथी लोग उनको लेकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर हमले बोलते रहते हैं, लेकिन आर्यसमाज सभा को दी गयी ज़मीनों का क्या हुआ, कभी कोई नहीं बोलता। 


देश को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का जुनून उन्हें सीमाओं के पार ले पहुंचा और 1914 मेँ यूरोप के रास्ते वे काबुल पहुँच गए। वहां 1 दिसंबर 1915 को भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जिसके वे राष्ट्रपति बने। श्री बरकतुल्लाह खान को प्रधानमंत्री बनाया गया। 


निर्वासित सरकार बनाने के उनके इस कदम का यह कहते हुये मज़ाक बनाया गया कि वे काल्पनिक स्वप्नदर्शी हैं। आखिर इस सरकार का क्या मतलब? लेकिन इस सरकार के मतलब थे- भारत की जनता का विश्वास जगाना और अंग्रेजों को चुनौती पेश करना कि भारत की अपनी सरकार अब अस्तित्व मेँ आ गयी है। आखिर भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने भी तो नेशनल असेंबली मेँ बम इन्ही  उद्देश्यों के लिए फेंका था, हिंसा अथवा खून खराबे के लिए नहीं। 


1917 मेँ रूस मेँ का॰ लेनिन के नेत्रत्व वाली बोल्शेविक ( कम्युनिस्ट ) पार्टी द्वारा  जारशाही का तख़्ता पलट दिया गया था और रूसी समाजवादी क्रान्ति निष्पन्न हो चुकी थी। शोषण से मुक्त मेहनतकशों के राज्य के नवनिर्माण की कोपलें फूट रहीं थीं। भारत के तमाम क्रांतिकारियों को इस क्रान्ति ने आकर्षित किया था। राजा महेन्द्र प्रताप भी उनमें से एक थे। वे पेट्रोग्राद ( आज का लेनिनग्राद ) जा पहुंचे और महान लेनिन से भेंट की। बताते हैं कि उन्होने लेनिन से भारत की आज़ादी के आंदोलन मेँ हस्तक्षेप का आग्रह किया। लेनिन ने उन्हें समझाया कि किसी भी देश का राष्ट्रीय आंदोलन प्राथमिक तौर पर उसके अपने लोगों द्वारा चलाया जाना चाहिये। आप वहां तैयारी कीजिये, हम नैतिक समर्थन देते हैं। 


यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि राजा महेंद्र प्रताप के नेत्रत्व वाली अस्थाई सरकार के एक प्रतिनिधि एम॰ पी॰ टी॰ आचार्य थे जिनके प्रतिनिधि ने ताशकंद मेँ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के नाम से एक ग्रुप बनाने मेँ योगदान किया था। 


उन्हें 1932 मेँ शान्ति के नोबल पुरुस्कार के लिए भी नामित किया गया था। 


1946 मेँ तत्कालीन राष्ट्रीय नेत्रत्व के प्रयासों से वे भारत आये। जगह जगह उनके स्वागत समारोह हो रहे थे। देश आजाद होचुका था, मगर उनके स्वागतों का सिलसिला थम नहीं रहा था। तब हाथरस अलीगढ़ जनपद मेँ हुआ करता था। अलीगढ़ के धर्म समाज कालेज मेँ भी एक स्वागत समारोह रखा गया था। उनके मन मेँ एक हिन्दू मुस्लिम भाईचारे से ओतप्रोत भावी भारत की कल्पना हिलोरें ले रही थी। उन्होने अपने भाषण मेँ कहा कि अब देश आज़ाद है- कोई भी भाई बहिन किसी भी धर्म के मानने वाले से शादी कर सकता है। उनके यह कहते ही वहां मौजूद सांप्रदायिक तत्व फुफुकार उठे और उनके ऊपर ईंट- पत्थर फेंकने लगे। प्रशासन ने बंद गाड़ी मेँ बैठा कर उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला। यह घटना बचपन मेँ मेरे पिता श्री शिव नन्दन शर्मा ने बताई थी जो इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी थे। आज वे ही सांप्रदायिक तत्व उनको वोट की फसल उगाने मेँ इस्तेमाल कर रहे हैं। 


1957 के लोकसभा चुनाव मेँ वे मथुरा संसदीय सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप मेँ विजयी हुये। जनसंघ से श्री अटल बिहारी बाजपेयी लड़े और चौथे स्थान पर रहे। कांग्रेस से दूरी और अपने एजेंडे पर ही चलने वाले राजा महेन्द्र प्रताप को उस समय की राजनीति ने अपने में खपाया नहीं या वे ही नहीं खप सके। 1962 का मथुरा से लोकसभा चुनाव हारने के बाद सामाजिक और लेखन जैसे कामों तक सिमट गए। 


महापंडित राहुल सांकृत्यायन तब मसूरी मेँ निवास कर रहे थे। 8 अक्तूबर 1955 को राजा महेन्द्र प्रताप उनसे मिलने पहुंचे। यह उस महान देशभक्त व्यक्तित्व के महापुरुषों के प्रति भाव को दर्शाता है। राहुल जी ने भी इस महान देशभक्त के आगमन को भारी महत्व दिया और अपनी आदत के मुताबिक डायरी मेँ नोट कर दिया। 


वह इस प्रकार है- 


स्वतन्त्रता संघर्ष के जीवित शहीदों की वह ज्वलंत मूर्ति हैं। मैं समझता था कि 70 के ऊपर के होंगे, लेकिन अभी उम्र 68 की ही थी। स्वास्थ्य इस अवस्था मेँ जैसा होता है, उसे देखते हुये बुरा नहीं था। “संसार संघ” की धुन उन्हें वर्षों पहले से ही है। जानते हैं बात सुनने वाले भले ही मिलें, लेकिन मानने वाले नहीं मिलते। तो भी उर्दू, हिन्दी, अंग्रेजी मेँ अपने “संसार संघ” को निकालते ही जा रहे हैं।,,,,,,,,,, 


वह प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ हैं। राज रियासत छोड़ कर बेसरो सामानी के देश से निकल गए। अंग्रेजों के कुत्ते उनके पीछे पड़े रहते। सगे संबंधी उनकी गंध से भी डरते। पर वह आजीवन अपने विचारों पर डटे रहे। अंग्रेजों के प्रति उनकी अपार घ्रणा कभी नहीं घटी। कई बार उन्होने पृथ्वी की परिक्रमा की।,,,,,,, 


ऐसे पुरुष की जीवनी कितनी प्रेरणादायक होगी, सोच कर मन होता है, उसे लिख डालूँ।,,,,,,,, उनके पैरों मेँ अब भी चक्का बंधा हुआ है। ( राहुल जी- मेरी जीवन यात्रा, जिल्द 4 पृष्ठ- 224- 25, नया संस्करण, पेपर बैक ) 


29 अप्रैल 1979 को इस महान देशभक्त ने इस नश्वर शरीर का परित्याग किया। तत्कालीन भारत सरकार ने उन पर एक डाक टिकिट जारी किया था। अब जनता की वर्षों से चली आ रही मांग पर अलीगढ़ मेँ उनके नाम पर एक राज्य विश्वविद्यालय की स्थापना की जारही है। 


डा॰ गिरीश  

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